भारतीय चित्रकला की छह विधाएँ
200 से 300 ईसवी के मध्य वात्स्यायन ने अपने से पूर्व के सभी महत्वपूर्ण ग्रंथों का अध्ययन करके शास्त्रोचित विधाओं का सार ‘कामसूत्र’ नामक अपने ग्रंथ में लिखा है, जिसमें चासठ (64) कलाओं का वर्णन है, इनमें चित्रकला को चौथे स्थान पर रखा गया है। छह अंगों वाली इस विधा को पूर्ण विकसित कला के रूप में मान्यता दी गई है। वात्स्यायन के अलावा पंडित यशोधर की ‘जय मंगल’ टीका में भी यह श्लोक दिया गया है-
रूपभेदाः प्रमाणानि भावलावण्या योजनम्। सादृश्य वर्णिकाभंग इति चित्र षड्ङगकम्॥
इस श्लोक में कला को छह विधाओं वाली बताया गया है, जो कि इस प्रकार हैं-
1. रूपभेद छवि- इसे दृष्टि ज्ञान भी कहते हैं यानी देखे गए दृश्य को संपूर्ण छाप जो मस्तिष्क में बनी रहती है। यह तभी संभव है जब कलाकार देखे गए दृश्य के विभिन्न अंगो का गहराई से अध्ययन करे।
2. प्रमाण– सही अनुपात – यह चित्र के विविध अंगों को समानुपातिक माप है।
3. भाव- कलाकार के हृदय की भावना जिसका प्रदर्शन कलाकार अपनी कृति में स्वतः ही कर देता है।
4. लावण्य योजना- कलात्मक सौंदर्य बोध इससे चित्र में सौम्यता व भव्यता का बोध होता है।
5. सादृश्य- वास्तविक आकृति देखे हुए रूप को समान आकृति ।।
6. वर्णिका भंग- रंगों का कलात्मक प्रयोग रंगों का बेहतर संयोजन।
कोई भी चित्र तब तक संपूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता जब तक कि उसमें कला के इन छह अंगों का सही प्रदर्शन न किया गया हो। चित्रकार के गहन अवलोकन से चित्र जीवंत हो उठता है।
दृश्य कलाओं के मूलभूत सिद्धांत (तत्व और सिद्धांत)
कला की भाषा कुछ मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित होती है, जिसे कला के तत्व और कला के सिद्धांत अथवा डिजाइन के सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। दृश्य कला के निम्नलिखित तत्व है-
1. बिंदु (Point) – एक बिंदु (.) का कोई आयाम अथवा भाग नहीं होता है। किंतु यदि यह किसी विशेष दिशा में घूमता है तथा पथ को चिन्हित करता है, तो उसे रेखा कहा जाता है। कला में बिंदुओं का प्रयोग छायांकन के उद्देश्य से किया जाता है।

2. रेखा (Line) – रेखा उस पथ का नाम है, जो दो ऑतम बिंदुओं को जोड़ता है। कोई भी रेखा साधारण हो या
आड़ी-तिरछी, घुमावदार हो या कोणीय. एक-आयामी होती है।

3. आकार (Shape)- जब किसी रेखा के दो अंतिम बिंदु किसी क्षेत्र को घेरते हैं, तो आकार या चित्र का निर्माण होता है। किसी भी वस्तु चित्र का एक विशेष आकार होता है। यह ज्यामितीय अथवा अनियमित हो सकता है। कोई भी आकृति जिसका चित्रण सतह पर किया जाता है, वह द्वि-आयामी होती है। कुछ भ्रमवश त्रि-आयामी दिखलाई पड़ते है, किंतु वास्तव में वे त्रि-आयामी नहीं होते, क्योंकि हम इनकी माप केवल लंबाई एवं चौड़ाई से ही कर सकते हैं।

4. स्थान (Space) स्थान से तात्पर्य सकारात्मक एवं नकारात्मक स्थान से है। सकारात्मक स्थान सयोजन का वह क्षेत्र होता है जो विभिन्न वस्तुओं/चित्रों के द्वारा अधिकृत होता है। अनधिकृत क्षेत्र, जो वस्तु चित्र के भीतर या बीच में प्रयुक्त किए जाते हैं, नकारात्मक स्थान कहे जाते हैं। नकारात्मक स्थान भी काफी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये वस्तुओं/चित्रों के बीच अनुरूपता तथा संतुलन उत्पन्न करते हैं।
5. रंग-रंजक (Colours ): आधारभूत रंग तीन हैं- (i) लाल (ix) नीला (iii) पीला। इन तीनों रंगों को समान मात्रा / अनुपात में मिलाने पर हम दूसरे स्तर के मिश्र रंग प्राप्त कर सकते हैं तथा इन्हें विभिन्न मात्रा / अनुपात में मिलाने पर असंख्य मिश्र रंग (Shades) प्राप्त कर सकते हैं। चित्र देखें-


6. रंगों की तान / रंगत (Tone of the colour)- यह किसी रंग के हलके व गहरे रूप का प्रदर्शन है। इसके लिए मूल रंगों में सफेद रंग मिलाकर उसकी तान को हलका किया जा सकता है। तथा काला रंग मिलाकर उसको गहरा किया जा सकता है। आपको कितनी हलकी व गहरी तान चाहिए उसी के अनुरूप सफेद या काले रंग की मात्रा मिलानी पड़ती है।

7. मान (श्रेणीकरण) (Value (Gradation )) – यह वस्तु चित्र की चमक अथवा अधेरापन है। यह आपके चित्रांकन में प्रयोग में लाई जाने वाली वस्तुओं, जैसे- पेंसिल, ब्रुश रंग इत्यादि के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकता है। रंग चक्र में पीला रंग बैंगनी रंग के विपरीत होता है तथा दोनों के मान अलग-अलग होते हैं। यह दो चित्रों के बीच स्थान के अनुसार भी भिन्न-भिन्न होता है। छायांकन तकनीक भी मान का निर्माण करती है। अतः मान का निर्माण कई तरीकों से किया जा सकता है।।



8. सतह की बनावट (Texture)- जिस सतह पर चित्रण करना है उसकी प्रकृति व बनावट जैसी होगी उसी के अनुरूप रंगों की प्रकृति का चुनाव किया जाता है ताकि उचित परिणाम प्राप्त हो सके। यह बनावट चिकनी, खुरदरी, दानेदार, जालीदार अथवा रेखीय प्रतिरूप वाली हो सकती है। चित्रण के लिए चुनी गई सतह के अनुरूप ही रंगों की प्रकृति का चुनाव किया जाता है; जैसे-क्रयोन, जलरंग, तैलीय रंग या कोई अन्य रंग।

दृश्य कला के निम्नलिखित सिद्धांत हैं-
1. एकता (Unity)- यह संयोजन में दिए गए सभी तत्वों की एक क्रमिक व्यवस्था है। एक संयोजन में विभिन्न प्रकार के तत्व; जैसे- रंग, योजना, तान, आकृति आदि होते हैं। इस प्रकार की कलाकृति उच्च श्रेणी को समझी जाती है। अतः यह देखने वालों के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालती है।
2. अनुरूपता (Harmony)- यह संयोजन के सभी अंगों के प्रति तालमेल को प्रदर्शित करती है। संयोजन में प्रयुक्त रंग-योजना कलाकृति को आकर्षक बनाती है। इसके साथ ही सभी वस्तुएँ आनुपातिक एवं यथास्थान होनी चाहिए। अनुरूपता को बनाए रखने के लिए स्थान प्रबंधन संयोजन का एक महत्वपूर्ण पहलू है।
3. संतुलन (Balance) – यह विश्रांति का अहसास उत्पन्न करता है। यह आकार, रंग-व्यवस्था, विभिन्न वस्तुओं को स्थिति, सतह को बनावट तथा पद्धति के बीच तालमेल बनाता है, जिससे संयोजन का मान बढ़ता है। (i) एक-सा संतुलन (Symmetrical balance): यह औपचारिक संतुलन का एक प्रकार है। इस प्रकार का
संतुलन काफी प्रचलित है।
(ii) दीप्तिमान संतुलन (Radial balance): यह विभिन्न दिशाओं में समरूपता की स्थिति है। संयोजन में दृश्य तत्व एक केंद्रीय बिंदु के इर्द-गिर्द व्यवस्थित किए जाते हैं। उसी तरह, जैसे गाड़ी के चक्कों में तिल्लियाँ लगाई जाती हैं।
(iii) विषम संतुलन (Asymmetric balance): विषम संतुलन अनौपचारिक तथा एक-से संतुलन से कम व्यवस्थित होता है, किंतु समान दृश्य भार वाला होता है। यह एक से संतुलन डिज़ाइन की अपेक्षा सयोजन में अधिक विषयगत तथा परिवर्तनशील होता है।
4. समानुपात (Proportion)- चित्र में बनी प्रत्येक वस्तु के आकार के बीच उचित अनुपात दिखाई देना चाहिए अर्थात वे समानुपातिक होनी चाहिए। एक ही वस्तु के विभिन्न अंगों को भी उचित अनुपात तथा आकार में दिखाया जाना चाहिए।
5. लब (Rhythm) – समान वस्तु अथवा चित्र को विभिन्न तरीकों से पुनरावृत्ति करने से गति उत्पन्न होती है। मानवीय शरीर में लय इस बात का प्रमाण होती है कि मासपेशीय अथवा शारीरिक क्रियाकलाप जारी है। किंतु दृश्य कला में लय का तात्पर्य देखने वाले को उस दृष्टि के सहज जुड़ाव से होता है, जो संपूर्ण संयोजन / दृश्य/ कलाकृति के इर्द-गिर्द घूमती रहती है।
6. प्रभाव (Emphasis) – यह संयोजन में रुचि का केंद्र बिंदु है। कलाकार संयोजन के केंद्र-बिंदु का निर्धारण करता है। वह अपने चमकीले, वैषम्यपूर्ण तथा बड़े आकार वाले माध्यमों का प्रयोग कर इसे केंद्रीय स्थान पर इस प्रकार रखता है कि वे प्रभावपूर्ण प्रतीत हो।
